मृत्यु प्रेयसी बनी हमारी
लम्हा लम्हा शाम ढल रही
रफ्ता रफ्ता सांस घट रही
सरक रहा जीवन ये रेत सा
मोह हमारी भंग हो रही।
बढ़ती रही उमर हमारी
जन्मदिवस हम रहे मनाते,
पैर पाव की जमी सरकती
जश्न उसी का रहे मनाते।
प्रतिपल हम सब का जीवन
शनै-शनै अब खत्म हो रहा,
फिर भी जीने की इच्छा से
मोह कहाँ अब भंग हो रहा।
ब्रह्म जीव बीच माया ऐसी
गगन धरा बीच जैसे जीव,
निर्जीव आज है पूजा जाता
उपेक्षित होता सदा सजीव।
सांस एक प्रतिपल है घटता
पर मोह हमारा बना हुआ,
सत्य मृत्यु ही है बेशक
जीवन सदा झूट है रहता।
प्यार लुटाते जीवन पर
बेवफा जानते है हम सब
मृत्यु प्रेयसी बनी हमारी,
साथ निभाती अंतिम तक।
मोक्ष हमारा सदा लक्ष्य है
पर मोह नही छोड़ा जाता,
जान रहे जीवन क्षड़भंगुर
लालसा पर समाप्त नहि होता।
उमर बीत गयी मेरी सारी
व्यर्थ इन्ही चेर्चाओं में,
संभले जब देर हो चुकी
लगा कहाँ हम जी ही पायें।
निर्मेष प्रखर अध्यात्म धरो
रखो धरातल का ही ज्ञान
ज्यादा ब्रह्म जीव की चर्चा
से विचलित होता आत्मज्ञान।