मृत्यु : एक पहेली
नियति ही भेजती है,क्या खुद आती है ,
मगर दोष सारा इंसानों पर मढ जाती है।
देखते ही देखते जीते जागते इंसान को ,
लोटा भर राख के ढेर में बदल जाती है।
क्या ! कब ! कैसे ! क्यों ? हे राम !
और एक आह जुबां पर छोड़ जाती है।
दबे पांव तू से धीरे से आती है कहा से ,
और रूह को तन सेे खींच ले जाती है ।
ख़ुदकुशी ,ह्त्या ,हादसा या असाध्य रोग,
बहाने कोई भी बना के तू आ ही जाती है ।
यह तो हम ही मूर्ख जगत की माया में फंसे,
तू अपना फर्ज बखूबी निभाने आ जाती है ।
हम दुहाई देते रहते खुदा और तकदीर को ,
तेल जितना दीए में।उतनी जलनी बाती है ।
कर आये आज किसी का दहन चिता पर ,
यही चिता तो सभी के लिए सजाई जाती है ।
इस नश्वर देह को सजाते संवारते हैं ता उम्र ,
और ये देह पल में राख का ढेर बन जाती है ।
हम जाने कितने अरमान पालके बैठे होते है,
और खुदाई हमारी नासमझी पर मुस्काती है ।
ना इन सांसों का कोई भरोसा न धड़कनों का ,
फिर क्यों महत्वकांक्षा इतना हमें दौड़ती है ।
यदि मुक्ति की चाह है आवागमन के दुख से,
तो इसे प्रभु भक्ति ही निजात दिलवाती है ।
यदि मृत्यु का भय मन में समाता प्राणी के ,
तो मात्र प्रभु-भक्ति ही इस भय से तारती है।