*मृत्युलोक में देह काल ने, कुतर-कुतर कर खाई (गीत)*
मृत्युलोक में देह काल ने, कुतर-कुतर कर खाई (गीत)
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मृत्युलोक में देह काल ने, कुतर-कुतर कर खाई
1)
छप्पन भोग छतीसों व्यंजन, कोठी महल दुमहले
धरे रह गए धनवानों के, कहते सेहत पहले
चिता काठ की जली काठ के, तन में आग लगाई
2)
मस्ती में बीता क्षण-यौवन, दीर्घ बुढ़ापा आया
लाठी देकर गया हाथ में, क्षत-विक्षत सब काया
रोग लगे हैं तन को सौ-सौ, नहीं तनिक सुनवाई
3)
कोई पड़े-पड़े बिस्तर पर, अंतिम दौर बिताता
कोई छोड़-छाड़ घर अपना, डेरा दूर बसाता
अंतिम सॉंस कठिन लेना ज्यों, दूभर हुई चढ़ाई
4)
धन्य-धन्य वह जीवन जो प्रभु, चरण-धूलि को पाता
तन के भीतर छिपा अजन्मा, ढूॅंढ-ढूॅंढ जो लाता
सफल हुआ नश्वर तन उसका, मुक्ति उसी ने पाई
मृत्युलोक में देह काल ने, कुतर-कुतर कर खाई
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रचयिता: रवि प्रकाश
बाजार सर्राफा, रामपुर, उत्तर प्रदेश
मोबाइल 9997615451