मृग – नयनी
पलकों की झरोखों से
अधरों की लाल रंग में
हल्की सी आहट लगी
फिर एकबार उस
अदृश्य किकर की
जिसके बालों की सघन छाव में
बैठा व्यतीत करता घंटो
और खेलता उसके हाथों में
पहनी लाल – हरी चूड़ियों से
कितनी अकंपित थी
उसकी हर एक टहनी
निश्चल और स्वरस बनें
मै भी कहीं मग्न था उसमें
दुनियावी काम – काज से अनभिज्ञ
अपने आप से भी परे
महसूस करता था
हृदय गति को
लिपटा था उसके
प्रेम रूपी आंचल में
ख्वाइशों की एक गहरी लाली
जिसमे रंगी थी चुंदड़ी उसकी
कभी जब थका – हारा हुआ रहता
ठिठोली कर पंखा करती
हरी – पत्तियों के नीचे
अपनी मधुर ध्वनि से
निश्चय ही दूर करती
मेरी थकान
उसकी बांहों में बैठ
लिखता मै कविता,कई लम्हें
शायद अब प्रेम की
वास्तविकता का अंत हो गया
साथ में किकर का भी
जो थी कभी
मेरी ” मृग – नयनी” ।