मूरत को मूरत रहने दो ।।
मूरत को मूरत रहने दो ।
हमने अपनी तरुणाई में एक प्यारी सूरत देखी
उस सूरत में मन मन्दिर की अनुरागी मूरत देखी,
उस मूरत को हृदय बसाकर फिर पूजन श्रंगार किया,
एक नहीं दो नहीं सैकड़ों और हजारों बार किया ,
एक दिवस फिर यों ही हमने
अनायास ये पूछ लिया,
हे देवी मैं भक्त तुम्हारा
क्या तुमने अहसास किया,
मूरत बोली मैं मूरत हूं
तुम इतना ना समझ सके,
ना समझे , नासमझ कहीं के
तुम कुछ भी ना समझ सके
देवलोक की मैं देवी हूं
मुझे देव घर जाना है
मेरे पागल भक्त तुझे एक
राह नई दिखलाना है
मूरत की सूरत देखी है
मूरत मूरत होती है
जिसको जैसी श्रद्धा उसको वैसी सूरत होती है
मानव तुम तव तक मानव हो
जब तक मन के अनुगामी
मन को किया अधीन
हुए तुम तीनो लोकों के स्वामी,
मैने कहा देवि मुझको है
किसी लोक की चाह नहीं
एक झलक मिल जाय तुम्हारी,
और कोई परवाह नहीं,
मूरत बोली मूढ मनुज
तू हठ कितनी दिखलाता है
तेरे जैसा हठी भगीरथ
गंगा घर ले आता है
जा तथास्तु कह दिया
किन्तु अब और कोई हठ
मत करना,
मूरत को मूरत रहने दे
इसमे मत जीवन भरना ।।