मूडी सावन
रोज रोज की ड्यूटी कैसी
मेरी ही क्यों है जिम्मेदारी
अब के क्यो कर बरसू मैं ही
मेरा बिलकुल मूड नहीं है
मूड ही से जगता मानुष
खाना मूड जमे जब खाता
बिना मूड ना पढता लिखता
बनें मूड तब सैर को जाता
सागर से उन्मुक्त जोश लिए,
सफर सुहाने मैं चला था
हरियाली, जंगल की सी चदरिया
दिखने को मन तरसा था
दुखी हो कहीं फट पडा तो
कहीं बरसाने को दिल ना हुआ
मूडी जो थी इंसा की फितरत
मुझ पर भी उसका रोग चढा
शायद मेरे मूडी रवैये से
सोया हर वो शख्स जगे
अपनी हर जिम्मेदारी का अब
बिना मूड के बोध जगे
मैं मेहमां बस तीन मास का
चाहूँ कुछ सत्कार मिले
जहाँ से गुजरू लेके बादर
लहलहाती पेडो की शाखाएं दिखें