मुफ़लिसों की आँखों में ख़्वाब ये निराला है
मुफ़लिसों की आँखों में ख़्वाब ये निराला है
ख़्वाब में ही रोटी का मुँह में इक निवाला है
ये कसम ही खाई है ख़्वाब ये ही पाला है
उस तरफ़ ही जाना है जिस तरफ़ उजाला है
कुछ तो लोग सोचेंगे कुछ तो लोग पूछेंगे
जानबूझकर उसने संग इक उछाला है
झूठ का सियासत ने ले लिया सहारा अब
है फ़रेब वादों का और बोलबाला है
ढूँढना अगर रब को ख़ुद के दिल में ही ढूंढ़ो
खामखां हरम औ’र हर दैर को खंगाला है
देखते नहीं सच को सच को क्या वो बोलेंगे
आँख पर बंधी पट्टी औ’र ज़ुबाँ पे ताला है
दौड़कर चले आये ये सफ़र हुआ भारी
साँस है ज़रा उखड़ी पाँव में भी छाला है
आपकी मुहब्बत में अश्क़ जो मिले हमको
हमने गीत-ग़ज़लों में आँसुओं को ढाला है
याद आपकी आती दिल बिखर-बिखर जाता
देखभाल की हमने दिल को फिर संभाला है
शब्दार्थ:- हरम=mosque, दैर=temple
– डॉ आनन्द किशोर