मुहब्बत नहीं है आज
शराफ़त से कह रहा हूँ शराफ़त नहीं है आज,
पहली सी दो दिलों में मुहब्बत नहीं है आज।
बाक़ी तो है दैर ओ हरम वही तो सज़दा है,
मोमिन की क़ल्ब ओ रूह में इबादत नहीं है आज।
हर एक यक़नफ़स में जिसके दर पे मैं खड़ा था,
अब उसके घर को मेरी ज़रूरत नहीं है आज।
टुकड़ों में सी रहा हूँ दिल ख़ंजर की नोक से,
दिल मेरा तोड़ने की इजाज़त नहीं है आज।
इस दौरे-ज़ुल्म में ‘तनहा’ अब मैं ही क्या लिखूँ?,
जब दोस्तों की हक़ में हिमायत नहीं है आज।
तारिक़ अज़ीम ‘तनहा’