मुसाफ़िर
अकेले ही चलना होता है इंसान को
पूरा करने को एक निश्चित सफ़र
तमस से निकलकर उजाले की ओर
वक़्त से बंधी पहेलीनुमा ज़िंदगी में…….
मुसाफ़िर ही तो है वह
छोड़कर जाना है उसे यहां
हर बीते लम्हे को बनाकर याद
अपनों के लिए उनकी ज़िंदगी में……….
गुजरते वक़्त के साथ
काया , माया और साया
कुछ भी स्थायी नहीं है
जाने क्यों जानकर भी यह हर इंसान
परेशाँ ही रहता है अपनी ज़िंदगी में……..