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7 Sep 2021 · 1 min read

मुसाफिरखाना है ये दुनिया

मुसाफिर खाना है दुनिया जानता हर बशर ,
क्या ही अच्छा होता हक़ीक़त को मानता गर।

ना ही वो इतनी माल -ओ -दौलत जमा करता ,
और न ही इनके खो जाने का लगता कोई डर।

यह रूप और जवानी जिस्म के साथ खाक होगी,
अफसोस नहीं करता गर आईने से मिलती नजर।

इंतेकाल पर किसी के क्यों रोता यूं ज़ार ज़ार वो ,
खुदा की दी अमानत को न समझता अपना घर ।

हैरान हैं हम की दूसरों को कब्र तक लाने वाला ,
खुद अपने अंजाम से अक्सर रहता है बेखबर ।

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