मुल्यों का अवमूल्यन!
मैं अक्टूबर इक्कीस से अड़सठ वें वर्ष में प्रवेश कर गया हूं, मैंने अपने बाल्य काल से लेकर युवा वस्था से होकर प्रौढ़ावस्था होते हुए अब बुजुर्वा वस्था तक का सफर तय कर चूका हूं! मैंने अपने जीवन काल में नैतिक मूल्यों के चरम को भी देखा है, ऐसा भी नहीं है कि तब स्वार्थी लोग नहीं थे, किन्तु वह भी अपने स्वार्थ के लिए एक सीमा तक ही आग्रही हुआ करते थे, और कभी कभी तो उनमें भी गरीब गुरबों के लिए हमदर्दी रहा करती थी जिसे उनके द्वारा दर्शाया भी जाता था, वह भी करके दिखाया जाता रहा है!
मैंने उच्च नैतिक मूल्यों पर जीने वाले लोग भी देखें हैं जो दीन दुखियों, गरीब गुरबों की मदद के लिए अपने परिवार की जरुरतों की अनदेखी कर के भी उनकी सहायता करने की प्रतिबद्धता देखी जा सकती थी, वह समय मेरे बाल्य काल का है जब मैंने ऐसा होते देखा है, चुंकि मेरे पिता जी स्वयं निर्विरोध सरपंच एवं ग्राम प्रधान रहे हैं, तो उनके साथी सहयोगी भी समाज के कार्यों में बढ़-चढ़कर भाग लेते हुए, श्रमदान,अर्थ दान करके परिसंपत्तियों का निर्माण किया करते रहे! जैसे पंचायत घर, पैदल चलने के चौफूटा मार्ग, नाले खालों पर छोटी छोटी पुलिया, खेतों की सिंचाई के लिए गूल!
इनके निर्माण में लगने वाला श्रम गांव के लोग अपने अपनी सामर्थ्य के अनुसार किया करते थे तो समृद्ध लोग अर्थ दान करके या फिर उनके जलपान की व्यवस्था को पूरा करते हुए कार्य को मूर्त रुप प्रदान करने में गर्व का अनुभव महसूस करते!
मैं जब युवा वस्था में आया तो इसमें कुछ ह्रास महसूस करने लगा,लोग स्वेच्छा से नहीं अपितु आग्रह पर आकर अपनी खाना पूर्ति करने लगे! प्रौढ अवस्था में आते आते इसमें बहुत ज्यादा कमी नजर आने लगी, लोगों ने सिर्फ उन्हीं कार्य में हाथ बंटाने का चलन शुरु किया जिसमें उन्हें अपना हित भी दिखाई देता! लेकिन अब लोगों में इतना परिवर्तन आ गया है कि लोग किसी सामुहिक काम करने के किसी अभियान से जुड़ने में ही संकोच करने लगे हैं! इतना ही नहीं वह इसके पीछे के निहितार्थ को भी परिभाषित करते हुए अपने द्वारा व्यक्त की गई दूरी को तर्क संगत और जायज भी ठहराने का तथा दूविधा ग्रस्त लोगों को हतोत्साहित करने में भी अपनी भूमिका को दर्ज करा रहे होते हैं!
यहां पर मेरा अनुभव यह बताता है कि जो लोग धन धान्य से कम हैं वह तो अपनी ओर से मनोबल बढ़ाने के लिए श्रमदान करने का भरोसा प्रदान करते हैं, किन्तु जो लोग समृद्ध हैं,अर्थ दान करने में समर्थ हैं वह अनेकों तरह के तर्क वितर्क करते हुए, माहोल को प्रतिकूल बनाने का भरपूर प्रयास करते हैं!
इनका नजरिया ऐसा है कि जो लोग समाज में आज भी अपना योगदान लोगों की सेवा में करते हुए कार्य कर रहे हैं उन्हें भी यह लोग उनमें अनेकों खामियां निकाल कर उन्ही का हित बताने लगते हैं! उनकी छोटी सी असावधानी इन लोगों के लिए बात का बतंगड़ बनाने में सहायक होती है!
आज कल का माहौल इस से भी बदतर हो रहा है और अमीरों में अधिकांश लोग गरीब गुरबों, दीन-हीन हीनों को सरकार के द्वारा दी जा रही मदद को खैरात मानते हुए अपने को टैक्स पेयर्स के रूप में प्रतिस्थापित करता फिरता है, लाखों रुपए कमाने वाला व्यक्ति पांच सौ रुपए महीने प्रधानमंत्री सम्मान निधि को प्रर्याप्त सहायता साबित करने में अपनी कमाई के धन की फिजुल खर्ची बताने नहीं हिचकते!
किसान जिसे उसकी लागत भी बहुत बार नहीं मिल पाती उसे भी अपनी बराबरी पर बताकर उसे दी जाने वाली रियायतों की फेहरिस्त गिनाने लगता है! वो किसान जो तपती धूप में, कड़कड़ाती ठंड में, और बारीस की बौछार में डट कर काम करता है, और दूसरी ओर वह नौकरी पेशा लोग जो, ठंड में, सुविधाएं चाहते हैं तो गर्मी में रियायत, और बर्षात में, बहाने बना कर घर से बाहर नहीं निकल पाते, लेकिन यदि बेतन में विलंब हुआ तो आंदोलन के लिए तैयार खड़े हो जाते हैं,बेतन वृद्धि से लेकर सुविधाओं में इजाफे तक, कभी सरकार को राहत नहीं देते, सुविधा शुल्क से आम जनजीवन को प्रताड़ित करने में हिचक नहीं दिखाते वह उपदेश देने में बड़ी बड़ी हांकने लगते हैं, मैं उनमें आज पहले के मुकाबले अधिक अवमूल्यन होता हुआ देखता हूं!