मुर्दे भी मोहित हुए
अगले मोड़ पर वह
आज भी बैठती उदास,
ढोते कृशकाय तन
मन करता दीखता विलाप।
कई प्रयास के बाद
उसने मुहं आखिर खोला,
क्या बताऊ बाबू
खूब खेलता रहा मौला।
कभी इस पूरे जगह की
मालकिन मै
मै बेशक हुआ करती
आज विवश बस आंसू
बहाती रहती।
मेरी जमीन पर जो आज
ये अट्टालिकाएं है सजती
इसी में आज मै
बेबश मजदूरी किया करती।
मेरे सामने ही मेरा एक एक
आशियाना लुटता रहा
अट्टालिकाएं तनती रही
मेरा खेत सब बिकता रहा।
विकास के नाम पर
बस ये सड़के ये भवन,
कुछ भवन के मध्य
बनाया गया कृत्रिम उपवन।
इनकी कीमत पर
लुप्त हो गयी अमराइयाँ
चहकते सीवान, मिटटी की
सोंधी गंध व गवईया।
चौपाल व चट्टी का खेल
सब समाप्त हुआ,
एक दूसरे से सुखद संवाद
का निर्लिप्त अंत हुआ।
शववाहनो में लाद कर
इनके अंतिम यात्रा हो रहे,
क्या समय था चार कंधो पर
जाते हुए मुर्दे भी मोहित हुए।
क्या गजब संयोग
कैसी संसार की ये रीति है
निर्मेश न चाहते हुए भी
कैसी जीने की ये बेबसी है।
निर्मेष