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3 Jan 2018 · 1 min read

*मुरादें क्या,मन्नत क्या*

हाशिल ही नहीं हुयीं चाहतें,तो मुरादें क्या?मन्नत क्या?
देखते रहे सींकचों से फ़जर, दोजख क्या?जन्नत क्या?

सराबोर होके नहाते रहे, रात दिन नमक की तरह
जम ही ना सके पाँव ज़मी पे,अवनत क्या?उन्नत क्या?

सिवाय अपनों के कौन घास डालता है? कभी कहीँ
काफिरों के वतन में फिर ,वो उल्फत क्या?इशरत क्या?

थुपते रहे गाँव के बंजर खेत में, कंडों की तरह
गढ़ी रह गईं आँखे उधर ये ,मेहनत क्या?किस्मत क्या?

अहसान में नहीं डूबे हैं हम,”साहब”हाँ तुम्हारे अभी
हथेलियां रोईं आयना देख ,दहशत क्या?मिल्लत क्या?
—————-(कलम नरेश पाल साहब)——————-
जनवरी-03,2018————————-06.40PM

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