मुठ्ठी भर राख,,,
जब जब फूटता है ज्वालामुखी,
भूकम्प आ जाता है मानों
दरक जाती है जमी परतें,,,
क्षण में बरसों की तपस्या
खाक में,,,
पर हार बिना माने,,
कोशिश करती है वो,,
फिर-फिर जमाने की ,,
जिसमें लग जाते हैं जमाने।
कब तक,,,
आखिर कब तक,,,
पूछता है मन,,
थककर,,
क्या अन्त नहीं,
काश ,,
या तो फिरसे ना आए
ये जलजला,
ना फूटे ज्वाला,,
नहीं तो,,,
एकबार में स्वाहा हो जाए ,,,
सबकुछ,,
फिर बचे ही ना कुछ
जमाने के लिए,,,
ना मैं ना तुम,,,
बस मुट्ठीभर राख,,,।
इन्दु