मुट्ठी भर चंद लोग
मुट्ठी भर चंद लोग
किसी मुल्क को गुलाम,
किसी राष्ट्र को स्वतंत्र बनाते हैं,
किसी तहजीब को थोप कर,
किसी संस्कृति को नोच जाते हैं।
मुट्ठी भर चंद लोग।
वही लोग,
जो झेलम तट पर अंभी की मदद से
पोरस का आत्मसमर्पण कराते हैं ।
वही लोग,
जो शक कुषाण मंगोल तुर्क अफगान और अंग्रेज बनकर आते हैं।
वही लोग,
जो माता को पतिता बनाकर भाईयों के गले कटवाते हैं।
वही
मुट्ठी भर चंद लोग।
जो राष्ट्र के पहिये हैं
और रास्ते में रोड़े भी अटकाते हैं।
जो समाज का हनन
और उसे जीना भी सिखाते हैं।
जो आपदा में अवसर
और अवसर पर आपदा फैलाते हैं।
वही,
मुट्ठी भर चंद लोग।
जो सत्तावन की क्रांति और
अड़तालिस की शांति लेकर आए थे।
जो पैंसठ का दर्द और
इकहत्तर का मर्ज लेकर आए थे।
जिनके लिये राष्ट्र धर्म सर्वोपरि और
निज धर्म से बड़ा कोई नहीं
वही
मुट्ठी भर चंद लोग।
हैरान हुं,
इस मुट्ठी के बाहर के लोग,
क्या करते हैं?
वो किस प्रकार जीते हैं
और किस प्रकार मरते हैं?
राजतंत्र की शाम ढल गई
फिर भी इसकी रात क्यों नहीं होती?
अगर ये लोकतंत्र है,
फिर लोगों की बात क्यों नहीं होती?
मूढ़ हूं पर समझने लगा हूं,
चीज खोई कहीं और है और
कहीं और ढूंढने चला हूं।
मुट्ठी की जरूरत ही खूनी थी।
कैसे मिले सरकार जो चुनी थी?
मुट्ठी की दीवारों से जो आहें टकराती हैं,
सिर पटक पटक कर वहीं दम तोड़ जाती हैं।
कभी सुना है इतिहास के नामों में ‘लोग‘ तुमने?
पढ़ा होगा नंद, मौर्य, चालुक्य, चोल तुमने।
मुट्ठी के बाहर के लोग चश्मदीद बनते हैं,
इतिहास के विनाश विकास उठा पटक के चश्मदीद।
और इसकी तारीखों को अपने नाम से स्याह कर जाते हैं।
वही,
मुट्ठी भर चंद लोग।