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19 Dec 2018 · 2 min read

मुट्ठी बनो या मुट्ठी में रहो !

पीड़ा जब मन में लबालब भर जाता है,
वो शब्द हो जाता है,
कोरे कागज़ पे,यूँ ही छलक जाता है,
अक्षरों से शब्द, शब्द से कविता हो जाता है ।
तुम ने कभी देखा है क्या ?
लोहे को शरीर में रक्स करते हुए ?
मिट्टी में खून को ज़ब्त होते हुए ?
सफ़ेद कबूतर से कश्मीर को,
कुरुछेत्र की रक्तिम धरती होते हुए ?
या किसी बेगुनाह को

सिपाही का शिकार होते हुए ?

या सत्ता के खेल में

सिपाही को ही बलि चढ़ते हुए ?
लोहा बोलता नहीं,
लोहा बोलती बंद करता है।
लोहा भेद करना नहीं जानता
वो अख़लाक़ से जुनैद,
विवेक से अज़ीम, सुबोध से बशीर

पुलावा से बस्तर तक के

शहीदों के भी

जिन्दा ज़िस्म में रक्स करता है,
और शून्य तक ले जाता है
पीछे बस कुछ चीख़ते होंठ रह जाती है।

कुछ छाती पीटती विधवाएं,

कुछ अबोध नौनिहाल जिसे पता ही नही होता

किसने क्या खोया, किस ने क्या पाया

और कुछ सपने कुछ उम्मीदें मुर्दा सी,
और हम सब तमाशबीन भी,
जो बिल्ली की तरह आँख मूँद लेते हैं,

कबूतर की तरह अपने मन के

रेत में सर गाड़ लेते हैं
और सोचते हैं, ख़तरा तो टल गया

जिसे जाना था वो चल गया,

और लोहा को जहां जाना था वो गया,
हम बचे,हम बचे ही रहेंगे

हम कभी नही ढहेंगे
पर ये तो भ्रम है, मृगमरीचिका
अब बात न गाय कि है, न टोपी की है

न ढाढी की है, न ही मूछ की

न किसी साहेब की लाल बत्ती की पूछ की

ये कुर्सी का खेल है, और हम सभी प्यादे

जिसकी अपनी कोई मर्जी नही

चलती अपनी अर्जी नही

अब या तो मुट्ठी बनो

या मुट्ठी में ही रहो,
दो ही रास्ते बचे हैं,
लकीर के इस पार, या उस पार

बीच में वैक्यूम, शून्य कुछ भी नही

तुम्हारी मर्जी, चुनाव तुम्हरा है

अभी रात हमरा और दिन तुम्हारा

तो कल दिन हमारा होगा

सुबह सूरज की लाली से होगा !

…सिद्धार्थ
***
19 -12 -2018
मुग्धा सिद्धार्थ

Language: Hindi
8 Likes · 589 Views
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