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3 Feb 2021 · 1 min read

मुझ से तो अब ये नज़ारा नहीं देखा जाता।

ग़ज़ल

मुझ से तो अब ये नज़ारा नहीं देखा जाता
कोई उतरा हुआ चेहरा नहीं देखा जाता

उनकी आँखों के रुला देते हैं आँसू मुझको
ज़ुल्म इंसानों पे होता नहीं देखा जाता

फूल अफ़सुर्दा हैं और सहमी हुई कलियाँ हैं
ऐसा आलम तो चमन का नहीं देखा जाता

बन्द नफ़रत की सियासत को करो अहले-वतन
हम से अब तो ये तमाशा नहीं देखा जाता

कौन आता है भला बात हमारी सुनने
दुख किसी से भी हमारा नहीं देखा जाता

ख़ुद ही जब मंज़िले-मक्सद का सफ़र करना हो
फिर किसी का भी सहारा नहीं देखा जाता

ख़ूने – मज़्लूम से अख़बार हुए सुर्ख़ क़मर
ख़ून – आलूदा सवेरा नहीं देखा जाता

जावेद क़मर फ़ीरोज़ाबादी

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