काँटे तो गुलाब में भी होते हैं
लिखती हूँ, मिटाती हूँ,
न बढ़ पाती हूँ, न रुक पाती हूँ,
ये मद्धम-मद्धम गति तंग कर देती है,
पर दरवाज़े बंद करना चाहूँ, वो भी नहीं होता,
सच बताऊँ तो मैं खुद नहीं करना चाहती,
जो दरवाज़े कभी दुनिया ने किये थे बंद,
मैं उस दुनिया-सी नहीं होना चाहती,
क्योंकि मैं हूँ भी नहीं।
तुझसे भय लग जाता है,
भाग जाने का ज़ी कर जाता है,
फिर सोचती हूँ, जब तू ठहरा है अभी ,
मैं कैसे कदम खींच लूँ?
लोग कितनी वजह दे चुके, अभी से तुझे छोड़ देने की,
पर उन पर अमल करके भी मैं अमल नहीं कर पाती,
पीछे हटने को उम्र पड़ी है,
जग की सुनने को कहाँ कभी देर हुई है,
पर यदि अपनी न सुनी, कहीं गलत न हो जाये,
पूरा यकीन है दिल टूटना है मेरा,
जो डर है, वो सच हो जाना है,
फिर भी मैंने डर से आगे बढ़ जाना तय किया है,
ज्यादा से ज्यादा क्या ही होगा,
मेरा डर सच हो जायेगा,
पर एक ख्याल मुझे रोक लेता है,
यदि न हुआ तो?
फिर काँटे तो गुलाब में भी होते हैं,
पर उसकी महक, उसकी सुगंध की ख़ातिर,
मैं सी-सी करके भी उस तक पहुँच जाती हूँ,
फिर तुझ तक क्यों नहीं?