मुझ पे फेंके कुछ नये पत्थर गए
मुझ पे फेंके कुछ नये पत्थर गए
कुछ लगे कुछ सर के भी ऊपर गए
लश्करे-तूफ़ान देखा सामने
जो सफ़ीने पर थे सारे डर गए
जीतनेवाले तो डूबे जश्न में
हारकर जितने थे अपने घर गए
इस क़दर टूटा भरोसा दफ़अतन
जिन सरों पर था यकीं वो सर गए
मुंतज़िर सदियों से सहरा है मगर
दर पे सहरा के नहीं सागर गए
ये कसम थी या मुहब्बत का असर
उनके घर जाना नहीं था पर गए
कुछ मरे थे आग में जलकर वहाँ
जो बचे वो बिन हवा के मर गए
जब हुनर भी है न हाथों में कोई
तो समझ लो दूर मालोज़र गए
हो न पाई आज तक हमको ख़बर
छोड़कर ‘आनन्द’ को क्यूँकर गए
– डॉ आनन्द किशोर