मुझे ज़िन्दगी का नशा सा हुआ है
नहीं जानता तू के याँ क्या हुआ है
ग़ज़ब, तूने जो भी कहा था, हुआ है
फ़लक़ से यहाँ रात बरसी है आतिश
सहर कोहरे का तमाशा हुआ है
अरे अंदलीबों न बेफ़िक़्र रहना
ज़माना ही सय्याद जैसा हुआ है
तेरे सिम्त से लौट आया मेरा दिल
यही आज मेरा मुनाफ़ा हुआ है
भला क्यूँ सताए मुझे डर किसी का
क़फ़स यार मेरा भी झेला हुआ है
अजल रुक ज़रा, होश में आ तो जाऊँ
मुझे ज़िन्दगी का नशा सा हुआ है
तड़पता है ग़ाफ़िल वो उल्फ़त का भूखा
क़सम सैकड़ों जबके खाया हुआ है
(अंदलीब=बुलबुल, सय्याद=बहेलिया, सिम्त=तरफ़, क़फ़स=पिंजड़ा, अजल=मौत)
-‘ग़ाफ़िल’