मुझे ख़बर भी नहीं धूप में जला कब तक
मुझे ख़बर भी नहीं धूप में जला कब तक
कहीं ठहर भी गया और मैं चला कब तक
हज़ार बार मैं सहरा ए दिल से गुज़रा हूँ
मेरी वफ़ा का लुटेगा यूँ क़ाफ़िला कब तक
नज़र तो आज भी आता है चाक ये दामन
किसे पता है के मैंने इसे सिला कब तक
दिलों के मैल ने मारा सदा सदाक़त को
यूँ ही नज़र में रहेंगे ये क़र्बला कब तक
किसी को प्यार ने मारा है कोई मुफ़लिस है
दिखेगा रोज़ यूँ रस्सी बंधा गला कब तक
ज़मीं से ख़त्म न होगा ये नक्सली साया
ग़रीब ज़ुल्म सहेगा कोई भला कब तक
मिलेगा न्याय भी कैसे के साज़िशें होतीं
अदालतों में चलेगा ये सिलसिला कब तक
कोई जो अम्न का दुश्मन है छोड़ मत ज़िन्दा
कहावतों पे चला क्या है फ़ायदा कब तक
जहाँ में दौर ये ‘आनन्द’ मुफ़लिसी का है
सवाल भूख का रोटी का मसअला कब तक
– डॉ आनन्द किशोर