” मुझे सहने दो “
बरसों से जो खमोशी के
घेरे में चुपाएँ कुछ शब्द है,
उन्हें आज कहनें दो…!
अगर बहतें है जो अश्कों के
धाराओं को तो बहनें दो..!!
चाँद तारों की ख्वाहिश
रखने वालों को चाँद तारों
के ख्यालों में ही रहने दो…!
सह रही है वो तो बचपन से ही,
बूढापे में भी उसे दर्द सारे सहने दो..!!
कैसे करते हैं दुनिया वाले
खुद को बेमिसाल, हमें तो
तुम बदनाम ही रहने दो…!
बहुत हद तक कष्ट दे चूका हैं
इंसान इस धरा को, अब
धरा को प्रलय करने दो..!!
कल ही तो आई है वो अपना
आँगन छोड़कर उसे किसी
ओर का घर सजाने दो…!
खेतों पर अपना हक जमा
कर बैठी है नदियाँ, किसान
को उसका कर्ज भरने दो..!!
क्यों करना है मुकम्मल
इस मौहब्बत को, तुम
इसे अधूरा ही रहने दो…!
तुम तो रहतें हो सरहद
पर मुझे तुम अपनी
साँसों में ही बहने दो..!!
तुम्हारी जुदाई का
दर्द मुझे सहने दो..!!
लेखिका_ आरती सिरसाट
बुरहानपुर मध्यप्रदेश
मौलिक एवं स्वरचित रचना