मुझे वो नज़रें बदलनी है
मुझे वो नज़रें बदलनी है
जो मेरी तरफ अचानक से मुड़ी है
अपने आप को भींचती हुई
जो मुझे अचम्भे से देख रही हैं
दया का भाव लिए
जो मुझे कमजोर बतलाती है
मुझ तक पहुंचने के लिए
जो तरस की सीढ़ियां चढ़ती है,
जो मुझे तीर की तरह गढ़ती है
आंख में डले तिनके की तरह चुभती है
लोगों के चहल-पहल में भी
जो मुझे ढूंढ लेती है,
हास्य का रूप में समझे
जो मुझे निहारा करती है
बीतें पुराने जख्मों पर
जो नई तलवारें चलातीं है
घाव का निशान बनाते हुए
जो तकदीर को तार-तार कर देतीं हैं,
नापसंद है मुझे ऐसी नज़रें
जो सहाय का अर्थ हमदर्दी से बतलाती हैं
बस मुझे तो वो नज़रें बदलनी हैं
जो मेरी तरफ अचानक से मुड़ी है।
— शिवम राव मणि