मुझे गाँव याद आता है
बरसों बीत गए शहर में रहते
पर जाने क्यों अब भी
मुझे शहर अच्छे नहीं लगते।
नादानी बेफिक्री की उम्र में
जबरदस्ती समझदार बना दिये गए
बच्चे , बच्चे नहीं लगते।
मन दौड़ता है गाँव की
किसी कच्ची पगडंडी पर।
पहुँच जाता है उस मिट्टी के घरौंदे में
जो बचपन मे बनाये थे खेलते हुए घर घर।
बालू रेत में नन्हे नन्हे पैर जमा कर
उस मिट्टी के घर पर लगा दी थी
छोटी सी झंडी अपना नाम लिख कर।
आज भी बालू रेत में मजबूती से दबा वो पाँव
बड़ा याद आता है।
शहर की रेलपेल, आपा धापी से दूर
दादी नानी का गांव बड़ा याद आता है।
खड्डों किनारे पानी का शोर था
पर मन बड़ा शांत था।
घर मे खूब गहमा गहमी थी
पर फिर भी एकांत था।
याद आता है वह बागीचा
जहां नाचती थी जिंदगी
पेड़ों के संगीत पर।।
बहती थी कल कल
कूहलों के पानी पर।
दौड़ती थी जिंदगी अलमस्त
खेतों में खलिहानों में।
बावरी हवा सी घूमती
कच्चे मकानों में।
ज़रूरतें कम थीं और
सब कितने अच्छे थे।
दूर पार के रिश्ते थे
पर अपने थे ,सच्चे थे।
आज भी मुझे यह
दौड़ती भागती, बे दम हांफती ज़िंदगी
अच्छी नहीं लगती।
आज भी शहर के शानदार
बड़े बड़े कमरों में बंद
घुटी घुटी ज़िंदगी
अच्छी नहीं लगती।!
** धीरजा शर्मा**