मुझे क्यूँ तीरगी में रौशनी मालूम होती है
चले तू जब तो बलखाती नदी मालूम होती है
मुझे फिर जाने जाँ क्यूँ तिश्नगी मालूम होती है
तू मेरे सिम्त जब भी आ रही मालूम होती है
मेरे ज़ेह्नो जिगर में गुदगुदी मालूम होती है
है अंदाज़े बयाँ तेरा के है दीवानगी अपनी
तेरी झूठी कहानी भी सही मालूम होती है
चलो अच्छा हुआ मैंने नहीं जो इश्क़ फ़र्माया
कई फ़र्माए और इज़्ज़त गयी, मालूम होती है
जवाँ होने लगी शायद मेरी उल्फ़त मेरे जैसी
तेरी हर इक अदा अब क़ीमती मालूम होती है
हूँ शायद मैं नशे में या तेरे आने की है आहट
मुझे क्यूँ तीरगी में रौशनी मालूम होती है
न जाने हो गया है क्या सदी की नाज़नीनों को
के चुन्नी भी गले की, दार सी मालूम होती है
है सच भी या के है धोखा फ़क़त, मेरी नज़र का जो
तू मुझसे आजकल रूठी हुई मालूम होती है
मैं ग़ाफ़िल था, हूँ, आगे भी रहूँगा और क्या क्या क्या
मेरे बाबत ये सब, तेरी कही मालूम होती है
(दार=फाँसी)
-‘ग़ाफ़िल’