मुझे इश्क में गुनाह भी कबूल है
तेरे यादों का जो इक फूल है
सुबह शाम मुझे यूं ही कबूल है
तेरे नक्स में तेरे अक्स में
मुझे दर्पण होना भी कबूल है
वादा देने की तुम्हारी आदत न थी
बिन वादे ही हमने कहा कुबूल है
कोई कहे गुनाह तो कहता रहे
मुझे इश्क में गुनाह भी कबूल है
~ सिद्धार्थ