मुझे अब जाने दो
अब और कब तक करुँ इन्तज़ार,
अब ना रोको मुझे आज जाने दो,
अब मुझको अपना फ़र्ज़ निभाने दो,
अब ना रोको मुझे आज जाने दो।
जीवित रहा तो एक दिन मैं आऊँगा,
नये सिरे से फिर शहर भी बसाऊँगा,
अब ख़ुद को भी मुझे आजमाने दो,
अब ना रोको मुझे आज जाने दो।
ना जाने ये कैसी प्रभू की माया है,
महामारी है या कोई काली छाया है,
जितना सताना हो इसको सताने दो,
अब ना रोको मुझे आज जाने दो।
तेरे कारखाने के हम सभी मजदूर हैं,
मजबूर तो जरुर पर नहीं मगरुर हैं,
खून बहाया है तुम्हें अमीर बनाने को,
अब ना रोको मुझे आज जाने दो।
रुक गया तो फिर मैं नहीं जा पाऊँगा,
यहाँ रह भी गया तो मैं क्या खाऊँगा,
मुझे अपने आप सामंजस्य बनाने दो,
अब ना रोको मुझे आज जाने दो।
मकान मालिक ने हमे घर से निकाला,
ना जेब में कौड़ी है ना पेट में निवाला,
आज बचकर मुझे घर निकल जाने दो,
अब ना रोको मुझे आज जाने दो।
बहुत दूर है बसेरा मैं फिर भी जाऊँगा,
कोई सवारी नहीं मैं पैदल ही जाऊँगा,
चाहे पैर में छाले पड़ते हैं पड़ जाने दो,
अब ना रोको मुझे आज जाने दो।
गर बचा तो निश्चित घर पहुँच जाऊँगा,
घर में चैन से पानी भात तो खाऊँगा,
रो कर ‘मधुकर’ दो बूंद आँसू बहाने दो,
अब ना रोको मुझे आज जाने दो।
?? मधुकर ??
(स्वरचित रचना, सर्वाधिकार ©® सुरक्षित)
अनिल प्रसाद सिन्हा ‘मधुकर’
जमशेदपुर, झारखण्ड।