मुझसे ख़फा होकर
ग़ज़ल-(बहर्-हज़ज़ मुसम्मन सालिम)
वज्न-1222 1222 1222 1222
अरकान-मुफाईलुन मुफाईलुन मुफाईलुन मुफाईलुन
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ज़रा सी बात पर तुम जा रहे मुझसे ख़फा होकर।
बताओ तो सही जी पाओगे मुझसे ज़ुदा होकर।।
तुम्हारे सर लगा इल्ज़ाम अब तो साथ रहना है ।
डुबाया है सफ़ीने को तुम्हीं ने नाख़ुदा होकर।।
उठा दिल में तेरे तूफान रोकेगा भला कब तक।
बरस जाने दे तू इसको निग़ाहों से घटा होकर।।
सरे महफ़िल लगाते हो गले मेरे रकीबों को।
किया रुसवा मुझे तुमने मेरा ही राजदा होकर।।
भटकना ही नसीबा है मुसाफ़िर का तोे सहरा में।
करो गुमराह मंज़िल से अगरचे रहनुमा होकर।।
बनें नासूर दिल में नफ़रतें जो पाल रखते हो।
लगाओ प्यार का मरहम असर देगा दवा होकर।।
निशां क्यों ढूढ़ते हो ये”अनीश”अब उसके कदमों के।
कहां मिल पायगा तुमको उड़ा है जो हवा होकर।।
——-अनीश शाह
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सफीना=नाव ।नाख़ुदा=नाविक।रकीब=प्रतिद्वंदी।
सहरा=रेगिस्तान।