मुझसे क्यूं पून्छ्ते हो
DR ARUN KUMAR SHASTRI // EK ABODH BALAK // ARUN ATRIPT
मेरे हिस्से का आसमान
जो दिखता है छ्लावा है //
उसमें तेरा उसका उनका
इसका भी आसमान आता है //
मै उठा तडके तडक
भोर से बहुत पहले
सूरज तब पश्चिम में था
कदम बढाया वापिस आया
तब तक वो दक्षिण में था //
फिर भी मैने परंपरागत
उद्वोधन कर नमन किया
अपनी छ्त को छूने को
अनथक प्रयत्न किया //
इस कोशिश में उम्र ढल गई
दो प्रहर के संसाधन जोड़ते जोड़ते
एक सदी ही निकल गई /
बीच 2 अनेको ओंन लाईन
गुरु मिल गये तो
जपो जप करतल
छवि बिगड़ गई /
साध न पाया साधन को
जबतक कदम बढाया वापिस
आया तब तक वो दक्षिण में था //
ऐसे बीता जीवन मेरा /
तेरी तो मै जानू ना
ढूँढ रहा अपने जीवन को
मदद किसी से मांगू ना //
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