मुझमें क्या मेरा है ?
दिन दफ्तर का, रात पे हक बच्चों का है
कोई बताए अब मुझमें क्या मेरा है ?
शर्म बहुत आती है उससे मिलने में
जिसने रिश्तों के धागों को तोड़ा है
उसने खुद से खुद को कातिल बोला है
आज लगा दुनिया में सच भी जिंदा है
वो ढांचा है, चलता-फिरता मुर्दा है
प्यार में शायद उसका भी दिल टूटा है
मेरे दिल से अब तक गांव नहीं निकला
बाप की पगड़ी का भी मुझ पर जिम्मा है
बस इतनी थी आस कि कोई रोकेगा
देर तलक हमने सामान समेटा है
द्वार खुला है फिर भी कोई नहीं आता
दिल पर तेरी यादों का जो पहरा है
आंगन का हम पेड़ कटा कर रोए हैं
इसकी ही शाखों पर बचपन झुला है