मुझको तुफां से खौफ नहीं
मुझको तुफां से खौफ नहीं ,लेकिन डरता हूं साहिल से।
बहुत कठिन था मगर बनाया, घर मैंने तो मुश्किल से।
घर की चौखट पर ताक रहा, रातों की सघन अंधेरों में।
सहर होने को आई लेकिन, पंछी न आई बसेरों में।
नित दिन आंसू के बूंदों से ,दर्दों का माल पिरोता हूं
अश्कों को पिता खाता हूं , चादर बना के सोता हूं ।
थककर चलने में प्रेम डगर पर डर लगता है मंजिल से।
नीरस नीरस लगता जीवन, मैं निर्वासित हूं दिल से।
मुझको तुफां से खौफ नहीं, लेकिन डरता हूं साहिल से।
बहुत कठिन था मगर बनाया, घर मैंने तो मुश्किल से।
दीपक झा “रुद्रा”