मुग्धा
कलियों से कोमलता पाई
लचक वल्लरी से आई
गात महकती फूलों सी
भँवरे के मन को है भायी।
अँखियों में मादकता बसती
मोहिनी सूरत मन भरमाई
लहराते गेसू नागिन से
चितचोर छवि मन हरसाई।
याद आयें साजन को वो पल
गुज़रे संग,प्रेम रादिनी गाई
क्या, कैसी भूल हुई मुझसे?
क्यूँ प्रियतम ने हूँ बिसरायी?
आ जाओ तपती हूँ निशिदिन
तकती हूँ पथ हरपल हरछिन
वो मुँदरी जाने कहाँ गई!
प्रियतम तुमने थी पहनायी। हरितिमा बीच बैठी सजनी
साजन की छवि संग ले आई
मुग्धा हो अपने साजन की
मन ही मन मुसका इठलाई।
अपर्णा थपलियाल