गीतिका
मापनी मुक्त गीतिका
*समान्त:डरना *
*पदान्त:क्या *
किया नहीं कुछ बुरा अगर,तो डरना क्या।
मस्त जियो यूँ रोज-रोज, फिर मरना क्या।
सुनता नहीं जनम से है, गूंगा- बहरा- बेदर्द,
है उससे दुख-दर्द-समस्या कहना क्या।
दुख है अपना मीत,निभाता वह सच्ची यारी,
सुख का द्वार खुलेगा अंदर,है अंदर से घुलना क्या।
सजग रहो, समझो क्या है, दुनियां आखिर,
अंदर ही है हल , बाहर फिर पिसना क्या।
‘सहज’ रहो जीवन, अलभ्य है मानुष का,
मन में द्रिढ़ता हो कायम, तो ढहना क्या।
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@डा०रघुनाथ मिश्र ‘सहज’
अधिवक्ता /साहित्यकार
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