.मुक्त छंद रचना: बेटी
माँ – बाप की
आँखों का नूर
पिता का
स्वाभिमान
समाज का
सम्मान
कल-कारखानों में
खेतों-खलिहानों में
दफ्तरों-विभागों में
कहाँ नहीं हैं
बेटियाँ हमारी
फिर क्यों
आखिर क्यों
जवाब दे समाज
सपष्टीकरण दे धर्म
बताएं-खोखली परम्पराएं
नज़रंदाज़ होती हैं क्यों
हमारी मासूम बेटियाँ
क्यों तिरस्कृत होती हैं
समाज के
खोखले रीति-रिवाजों में.
क्यों पराया धन
क्यों न अपनापन बेटों सा
क्यों
आखिर क्यों
भला क्यों
क्यों मानते हैं लोग
बेटों को
बाप की लाठी
बेटी को
घर का बोझ
बेटी नहीं होती बोझ
वह होती है
बाप का सहारा
पति का सर्वस्व
दो-दो परिवारों का अभिमान
बेटी है वरदान
बोझ न इसको मान
बोझ न इसको मान
दे इसको सम्मान
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@-डॉ.रघुनाथ मिश्र ‘सहज’
अधिवक्ता/ साहित्यकार
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