मुक्तहरा सवैया
मुक्तहरा सवैया (जगण।ऽ।×8) ( 11,13 पर यति)
न देश पुरातन भारत-सा ,जग में अब भी जिसकी पहचान।
बसा उर अंतर त्याग जहाँ ,सुख वैभव का कर दें बलिदान।
नदी गिरि निर्झर,पुष्प खिले,मिलते हर ओर खेत खलिहान।
धरा पर एक यही अपना ,अति सुन्दर पावन देश महान।।
करूँ नित अर्पण शब्द तुझे अब मातु मुझे बनना सुधिमान।
रचूँ हर छंद सदैव चढ़ूँ नभ साहित के बनके दिनमान।
सुशीतल भाव प्रवाह रहे उर में कवि पुंगव -सा गतिमान।
कृपा तव मातु मिले मम चाह प्रदान करो यह ही वरदान।।