मुक्तक
” बेचैनियाँ बढ़ीं तो दुआ बन गई ग़ज़ल,
ज़र्रे जो थरथराए, सदा बन गई ग़ज़ल,
चमकी कहीं जो बर्क़ तो ऐहसास बन गई,
छाई कहीं घटा तो अदा बन गई ग़ज़ल”
” बेचैनियाँ बढ़ीं तो दुआ बन गई ग़ज़ल,
ज़र्रे जो थरथराए, सदा बन गई ग़ज़ल,
चमकी कहीं जो बर्क़ तो ऐहसास बन गई,
छाई कहीं घटा तो अदा बन गई ग़ज़ल”