मुक्तक
गिरगिट-सा रंग बदलते मैंने इंसानो को देखा है,
अपनों को भी छलते मैंने बेईमानों को देखा है,
मानवता शर्मिंदा होती है नित दिन चौराहों पर,
डोली से पहले अर्थी चढ़ते अरमानों को देखा है।
गिरगिट-सा रंग बदलते मैंने इंसानो को देखा है,
अपनों को भी छलते मैंने बेईमानों को देखा है,
मानवता शर्मिंदा होती है नित दिन चौराहों पर,
डोली से पहले अर्थी चढ़ते अरमानों को देखा है।