मुक्तक
मुक्तक
बसाकर स्वार्थ निज उर में नहीं रिश्ते भुला देना।
न मन में बैर विष सा घोल अपनों को रुला देना।
मनुज जीवन बड़े सौभाग्य से मिलता किसी को है-
लिए इंसानियत सद्भाव नफ़रत को धुला देना।
रो रहा है जग समूचा कौन कहता है सुखी।
खोखले रिश्ते रुलाते झेलता है बेरुखी।
बढ़ गई हैवानियत क्यों सोच को दीमक लगी-
हो रही मनमानियाँ इंसान रहता है दुखी।
देशभक्ति की चादर ओढ़े एक नया अभ्यास रचा।
सत्य,प्रेम का पाठ पढ़ाकर जन-जन में विश्वास रचा।
चरखे के ताने-बाने से कर्मठता का ज्ञान दिया-
मौन-अहिंसा की लाठी ले बापू ने इतिहास रचा।
प्रीति छलनी मोहिनी इसकी इबादत दिल करे।
पीर गैरों की लगे अपनी ख़िलाफ़त दिल करे।
कर फ़रेबी साथ रिश्तों को भुला बैठा जहाँ-
हुस्न की गलियों में जा उसकी हिफ़ाज़त दिल करे।
बड़े नादान बनते हैं बड़े अंजान बनते हैं।
बनाकर रेत के रिश्ते मुकरते हैं फिसलते हैं।
क्षणिक ये बुलबुले दिल में तबाही को मचलते हैं-
फ़रेबी यार मौका देख गिरगिट सा बदलते हैं।
बैर मेरे मन कभी भाया नहीं।
कोप मेरे मन कभी छाया नहीं।
दीन का साथी बना हर हाल में-
लोभ मेरे मन कभी आया नहीं।
समाया द्वेष निज उर में नहीं खुदगर्ज़ियाँ कम हैं।
बढ़ाई कामना मन में नहीं दिलचस्पियाँ कम हैं।
मिटा इंसानियत दिल से मनुज खुद को भुला बैठा-
शहादत खून में बसती नहीं कुछ हस्तियाँ कम हैं।
लिए पशुता मनुज मन में बना हैवान बैठा है।
लगाकर लोभ का चश्मा बना शैतान बैठा है।
मिटी इंसानियत दुश्वारियाँ घर तक चली आईं-
निभा व्यवहार में कटुता बना नादान बैठा है।
हौसलों के पंख रख उर शान की हो भावना।
शिल्पकारी हस्त धर निर्माण की हो भावना।
स्वार्थपरता त्याग कर जन-जागरण की बात कर-
ले मशालें ज्योति बन उत्थान की हो भावना।
बना माहौल रुतबे का दिखाया आचरण अपना।
दिया उपदेश दूजे को भुलाया आचरण अपना।
मिटाकर दूसरे की शान चलते तानकर सीना-
ख़ुदा ख़ुद को समझ बैठे जताया आचरण अपना।
कटा फुटपाथ पर बचपन यहाँ दिन-रात क्या जाने।
मिटी ना भूख जिसकी वो भला जज़्बात क्या जाने।
बढ़े दो हाथ कूड़े में उठाने दो निवालों को-
लगादी लाज की बोली भला सौगात क्या जाने।
दर्द को दिल में छिपाना चाहिए।
अश्क आँखों में न आना चाहिए।
ज़ख्म उल्फ़त के मिले उपहार में–
मकबरा दिल में बनाना चाहिए।
डॉ. रजनी अग्रवाल “वाग्देवी रत्ना”
बाँट ग़म अंतस खिला दूँ वो अधर मुस्कान दो।
भूल नफ़रत नेक इंसाँ बन सकूँ पहचान दो।
रुख बदल तूफ़ान का हालात से लड़ता रहूँ-
मौत आए देश के ख़ातिर मरूँ वरदान दो।
दिया जब ज़ख़्म अपनों ने गिला किससे करेंगे हम।
क्षमा कर भूल अपनों की फटे रिश्ते सिलेंगे हम।
बना ताकत मिला जो दर्द दुनिया को दिखा देंगे-
सजाकर शूल अधरों पर गुलों से खिल उठेंगे हम।
डॉ. रजनी अग्रवाल ‘वाग्देवी रत्ना’
डॉ. रजनी अग्रवाल ‘वाग्देवी रत्ना’
वाराणसी (उ. प्र.)
संपादिका-साहित्य धरोहर