मुक्तक
“घूँघट/नकाब/हिज़ाब/पर्दा
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(1)गिराके शबनमी #घूँघट सुहानी रात करती हो।
चला खंज़र निगाहों से ग़जब आघात करती हो।
घनेरी ज़ुल्फ़ का साया घटा बन नूर पर छाया-
शराबे-हुस्न उल्फ़त में क़यामत मात करती हो।
(2)हुस्न का जलवा दिखा लाखों नज़ाकत ढल गईं।
शोखियाँ मदहोशियाँ ज़ालिम अदाएँ छल गईं।
#चिलमनें रुख से हटाकर आपने सजदा किया-
आफ़ताबे नूर से कितनी शमाएँ जल गईं।
(3)दिखाते बेरुखी #चिलमन गिराके बैठे हैं।
मिजाज़े बादलों सा रुख बनाके बैठे हैं।
कसूरे चाँद का क्या दाग़ मुख पे उसके है-
#नक़ाबे हुस्न में जलवा छिपाके बैठे हैं।
(4)ओढ़कर ज़ालिम #हिज़ाबों को सताते आप हो।
खोल के क़ातिल निगाहों से रिझाते आप हो।
आपने पलकों की चिलमन से हमें घायल किया-
रूठ रुख़ पे रुख़सते #पर्दा लगाते आप हो।
डॉ. रजनी अग्रवाल “वाग्देवी रत्ना”
वाराणसी(उ. प्र.)
संपादिका-साहित्य धरोहर