मुक्तक
मुक्तक
सितारे आसमाँ से जब जमीं पर टूट के बिखरे।
बहारों ने किया सज़दा जवाँ फूलों से सब उभरे।
मची हलचल हवाओं में शरारत झूमके बरसी-
फ़िसलती चाँदनी आई धड़कते ज़िस्म दो निखरे।
डॉ. रजनी अग्रवाल “वाग्देवी रत्ना”
दर्द आँखों ने सहा आँसू की कीमत हो गई।
बेतहाशा नूर पा कुदरत की ख़िदमत हो गई।
रो रहा इंसान जग में खो गई इंसानियत-
दी हिना ने सुर्ख लाली हस्त इज़्ज़त हो गई।
डॉ. रजनी अग्रवाल “वाग्देवी रत्ना”
ज़ख्म अपनों ने दिए आहत हुए निष्प्राण से।
शूल के उपहार पा हम हो गए पाषाण से।
आज भागीरथ सरीखे लोग दुनिया में कहाँ-
जो धरा पर स्वर्ग लाए नित नए निर्माण से।
डॉ. रजनी अग्रवाल “वाग्देवी रत्ना”
प्यार पाकर मीत मेरे मैं तुम्हारा हो गया हूँ।
हुस्न देखा चाँद जैसा मैं तुम्हारा हो गया हूँ।
रूप ढक कर चिलमनों से क्या गज़ब तुमने किया है-
आफ़ताबी नूर पाकर मैं तुम्हारा हो गया हूँ।
डॉ. रजनी अग्रवाल “वाग्देवी रत्ना”
गिरे जब शाख से पत्ते सभी अहसास करते हैं।
बने जब बोझ अपनों पर नहीं हम खास रहते हैं।
मिलाकर धूल में पतझड़ बहारों को रुलाता है-
मिटा यौवन बुढा़पे में तरसते आस तकते हैं।
डॉ. रजनी अग्रवाल “वाग्देवी रत्ना”
पाप दुष्कर्मी करे चीत्कार करतीं बेटियाँ।
पूत भक्षक बन गए अन्याय सहतीं बेटियाँ।
मौन सत्ता धारकर देती बढ़ावा ज़ुल्म को-
बन निवाला वासना का कर्ज़ भरतीं बेटियाँ।
डॉ. रजनी अग्रवाल “वाग्देवी रत्ना”
सिसकती बेड़ियाँ पग में गुलामी छोड़ आई हूँ।
दरकते काँच के दर्पण धरा पर तोड़ आई हूँ।
दिखावा, स्वार्थ अपनों का नहीं मंजूर था मुझको-
पराई पीर से मैं आज रिश्ता जोड़ आई हूँ।
डॉ. रजनी अग्रवाल ‘वाग्देवी रत्ना’
लोभ-लालच, मोह-माया से बढ़ी वैमनस्यता,
कर्म कर आलस्य तज जो भाव रखता सत्यता,
चिलचिलाती धूप में करके जतन श्रम घोलता,
बन सिकंदर जीत का वो ताज सिर पर ओढ़ता।
डॉ. रजनी अग्रवाल “वाग्देवी रत्ना”
खुशी से झूमते-गाते लुटाते प्यार का सागर।
उड़े रंगीनी गुब्बारे सजाने आसमाँ का दर।
नहीं हिंदू नहीं मुस्लिम भुला मतभेद मज़हब के-
चला उन्मुक्त रिश्तों से परिंदा बन हमारा घर।
डॉ. रजनी अग्रवाल ‘वाग्देवी रत्ना’
गैर काे उर से लगाकर प्रेम करके देखना।
बैर सारे भूलकर अपना बनाके देखना।
एक पल में लोग अपने से लगेंगे आपको-
कुछ गुनाहों की सज़ा खुद को दिलाके देखना।
डॉ. रजनी अग्रवाल ‘वाग्देवी रत्ना’
महमूरगंज, वाराणसी।
संपादिका-साहित्य धरोहर