मुक्तक
मुक्तक
“ताबीज़”
लिए ताबीज़ सी तासीर उर में प्यार भरती हूँ।
ग़मों को खींच लोगों के अधर मुस्कान बनती हूँ।
लगा विषधर गले अपने उन्हें सद्भाव बख़्शा है-
बहाकर प्रीत की गंगा जगत उपकार करती हूँ।
यौवन
छलकता जाम नयनों से पिलाने चाँदनी आई।
समा आगोश में चंदा सितारे माँग भर लाई।
मचलता झूमता मौसम खिलाता रूप यौवन का-
लुटा कर जिस्म की खुश्बू सुहानी रात मुस्काई।
खिल उठेंगे हम
दिया जब ज़ख़्म अपनों ने गिला किससे करेंगे हम।
क्षमा कर भूल अपनों की फटे रिश्ते सिलेंगे हम।
बना ताकत मिला जो दर्द दुनिया को दिखा देंगे-
सजाकर शूल अधरों पर गुलों से खिल उठेंगे हम।
आशिकी
हो गया कुर्बान उन पर आशिकी तो देखिए।
ज़ोर दिल पर ना रहा ये बेकशी तो देखिए।
रात दिन तड़पा किए हम दूर हम से क्या हुए-
ज़ख़्म खाकर जी रहा हूँ बेबसी तो देखिए।
डॉ. रजनी अग्रवाल “वाग्देवी रत्ना”
महमूरगंज ,वाराणसी
संपादिका-साहित्य धरोहर