मुक्तक
छा गई पनघट उदासी गीत बिन सूना जहाँ।
घाट आतप से तपे हैं प्रीत बिन सूना जहाँ।
कृषक अंबर को तके खलिहान सूखे रो रहे-
सरित सागर खार बनती मीत बिन सूना जहाँ।
डॉ. रजनी अग्रवाल ‘वाग्देवी रत्ना’
दर्द सीने में छुपा बहती रही प्यासी नदी।
ख़्वाब आँखों में बसा हँसती रही प्सासी नदी।
बाँह फैला कर निरखते दो किनारे धार को-
प्यास अधरों पर समा तकती रही प्यासी नदी।
डॉ. रजनी अग्रवाल ‘वाग्देवी रत्ना’
लिखे सुख-दुख लकीरों में नई सौगात क्या पाई।
लुटाकर आशियाँ अपना खुशी की बात क्या आई।
मिला नायाब तोफ़ा आपको क्या इस ज़माने में,
लिए नव भोर का सूरज अनोखी रात क्या छाई।
डॉ. रजनी अग्रवाल ‘वाग्देवी रत्ना’
प्रीत अधरों पर सजा मुस्कान बनना चाहिए।
हसरतों के ख्वाब सा मेहमान बनना चाहिए।
भूल कर मतभेद मजहब के जियो सब प्यार से-
नेक कर्मों की सदा पहचान बनना चाहिए।
डॉ. रजनी अग्रवाल ‘वाग्देवी रत्ना’
वफ़ा की आड़ में हरदम बगावत की सनम तुमने।
हुए कुर्बान उल्फ़त में शिकायत की सनम तुमने।
इबादत कर तुम्हारे प्यार में मशहूर हो बैठे–
मिलाया हाथ गैरों से किफ़ायत की सनम तुमने।
डॉ. रजनी अग्रवाल ‘वाग्देवी रत्ना’
हार बीती सब भुला कर कर्म लाता जीत है।
प्यार की ताबीर बन सबको हँसाता मीत है।
फूल गुलदस्ते सजे महकी कई महफ़िल यहाँ-
दर्द को ताकत बना हर दिल सुनाता गीत है।
डॉ. रजनी अग्रवाल ‘वाग्देवी रत्ना’
तूने वफ़ा निभाई कि तन्हा नहीं किया
बे-आबरू हुए कभी शिकवा नहीं किया।
खुद को किया तबाह तेरी आरजू समझ
बर्बाद हो गए तुझे रुस्वा नहीं किया।
डॉ. रजनी अग्रवाल ‘वाग्देवी रत्ना’
नज़र के तीर से घायल नज़र भी आजमाती है।
वफ़ा की आरजू हर दम दिलों को क्यों रुलाती है।
भरोसा कर लिया जिस पर उसी ने आज लूटा है–
मुहब्बत भी जुदा होकर, नहीं रिश्ते निभाती है।
डॉ.रजनी अग्रवाल “वाग्देवी रत्ना
हार बीती सब भुला इंसान लाता जीत है।
प्यार की ताबीर बन सबको हँसाता मीत है।
फूल गुलदस्ते लिए महकी कई महफ़िल यहाँ-
दर्द की ताकत बना हर दिल सुनाता गीत है।
डॉ.रजनी अग्रवाल “वाग्देवी रत्ना”
नया ये साल जीवन में नई पहचान बन आया।
पुराने ग़म भुलाने को अधर मुस्कान बन आया।
दुआ करती सदा दिल से रहे न आँख में आँसू-
मिले खुशियाँ ज़माने की नया मेहमान बन आया।
डॉ. रजनी अग्रवाल ‘वाग्देवी रत्ना’
प्रीत गर हो जाय तो इकरार करना सीख लो।
शूल राहों में बिछे हों पार करना सीख लो।
दर्द को ताकत बना कर जीत लो सारा जहाँ-
नफ़रतों के दौर में तुम प्यार करना सीख लो।
डॉ. रजनी अग्रवाल ‘वाग्देवी रत्ना’
ठिकाना कर लिया दिल में ग़मों ने आपके क्यों अब।
सिले हैं होठ छाई है उदासी आपके क्यों अब।
जिता कर दूसरे को हार जाना है नहीं अच्छा-
महकता पुष्प मुरझाया खतों में आपके क्यों अब।
डॉ. रजनी अग्रवाल “वाग्देवी रत्ना”
सजा कर प्रीत के सपने लिए तस्वीर बैठे हैं।
इबादत में सनम तुझको बना तकदीर बैठे हैं।
छलावा कर रही दुनिया यहाँ जज़्बात झूठे हैं-
शराफ़त ओढ़ राँझा की सनम के द्वार बैठे हैं।
डॉ. रजनी अग्रवाल ‘वाग्देवी रत्ना’
किया ज़ख्मी ज़माने ने बने अपने यहाँ कातिल।
जलाया होम करके हाथ छोड़ा भी नहीं काबिल।
किया बदनाम शौहरत के फ़रेबी लोभ में पड़कर-
हुआ मशहूर दुनिया में बता दे क्या हुआ हासिल।
डॉ. रजनी अग्रवाल “वाग्देवी रत्ना”
दरारों की न पूछो जात रिश्ते चरमराते हैं।
उठा बिल्डर इसी का फा़यदा नित घर बनाते हैं।
लगा बोली सरे बाज़ार क्यों नीलाम करते हो-
छुपाकर दर्द रिश्तों का भला क्यों मुस्कुराते हो।
डॉ. रजनी अग्रवाल “वाग्देवी रत्ना”
संपादिका-साहित्य धरोहर
महमूरगंज ,वाराणसी।