“मुक्तक”
“मुक्तक”
जीते हैं जिलाते हैं खाते हैं पहनते हैं फिर क्यूँ दिखते कंकाल।
किसके हैं भंडार कुछ कहते हैं छलकते हैं फिर क्यूँ पलते आकाल।
हिलते हैं हिलाते हैं बमबम हैं थिरकते हैं अनजाने से हालात-
आते हैं कहाँ से डराते हैं मुँह बिचकाते हैं फिर भगते क्यूँ तत्काल।।
महातम मिश्र, गौतम गोरखपुरी