मुक्तक
सरक जाइत अगर चिलमन, त हमरो काम हो जाइत।
जहाँ नफरत से’ लेतू नाम, हमरो नाम हो जाइत।
नजर के बान लागल बा, हृदय घायल भइल हमरो-
दिवाना दिल भइल पागल मुहब्बत में सनम तहरी।
तनिक जो मुस्कुरा देतू, दरद आराम हो जाइत।
न मन्दिर से न मस्जिद से, न गीता से बसर होई।
रही जब पेट में दाना, तबे कुछऊ असर होई।
गुजारिश बा करऽ चाहें, सराफत भा सियासत तूँ-
उदर खाली भइल हमरो, बुरा तहरो हसर होई।
सियासत सराफत दिखावल करेला।
बिटोरेला’ दउलत तिजोरी भरेला।
पिसाइलि ह जनता पिसाते रही जी-
हवे चोर सत्ता में’ नाहीं डरेला।
घर चलावे खातिर घर छोडे के पड़ी।
लोग लइकन से मुंँह मोडे के पड़ी।
जिनगी में खुशहाली असहीं ना मिले-
पत्थर पर मुड़ी रगड़ के फोड़े के पड़ी।
बिंदी, चूड़ी बिछिया,पायल, छीन गई मुस्कान।
जीवन में है घोर अंँधेरा, श्वेत हुआ परिधान।
देख सको तो आकर देखो, विधवा के हालात-
जबसे छोड़ गए तुम साजन, जग लगता वीरान।
(स्वरचित मौलिक)
#सन्तोष_कुमार_विश्वकर्मा_सूर्य’
तुर्कपट्टी, देवरिया, (उ.प्र.)
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