मुक्तक
अश्रुनाद मुक्तक सड़्ग्रह ….. क्रमशः
अवचेतन में अकुलाती
अनुकृति अनुभूति कराती
युग- युग से चाह मिलन की
बन मरीचिका भटकाती
सुन्दर नव सुखद सवेरा
जग से कर दूर बसेरा
स्वच्छन्द रमण हो जिसमें
कल्पना- लोक चिर मेरा
मम व्यथित हृदय से आती
अन्तर्मन में अकुलाती
जीवन की मृदु अभिलाषा
आँसू बनकर बह जाती
डा. उमेश चन्द्र श्रीवास्तव
लखनऊ