मुक्तक… छंद हंसगति
आज खुशी की रात, दिवाली आयी।
सजी दीप की पाँत, छटा मन भायी।।
देख सफल वनवास, देव हरषाए।
हर्ष मगन रनिवास, सुवन घर आए।।१
रूप छटा घन श्याम, सहज मन मोहे।
मनहरणी मुस्कान, वदन पर सोहे।।
लीला सुत की देख, मात बलिहारी।
रुचे माथ पर रेख, तात अनुहारी।।२
तज दे पगले मोह, स्वार्थ का घेरा।
जाना सब ही छोड़, नहीं कुछ तेरा।।
क्यों ये जोड़-बटोर ? बाँट दे सबको।
अपना ही परिवार, मान ले जग को।।३
नश्वर हर जड़ जीव, जगत में आया।
अजब यहाँ की रीत, अजब है माया।।
क्या रखना है साथ, साथ क्या लाया ?
उड़ जाएगा हंस, छोड़ यह काया।।४
घातक जग के ताप, जलें नर-नारी।
कौन रचे ये पाप, समझना भारी।।
अजब जगत बरताव, किसे क्या बोलें।
तोड़ सभी विश्वास, गरल मन घोलें।।५
© सीमा अग्रवाल
मुरादाबाद ( उ.प्र.)