*मुकद्दर*
मुकद्दर जहाँ में उसी का हुआ है
खुद पे ही जिसने भरोसा किया है
जो भी चला है कांटों के पथ पर
फ़ूलॊ का ही फ़िर बिछौना हुआ है
हर इक खुशी को जिसने है पाया
गमों का उसी ने ही बोझा सहा है
चखा हो जिसने जीवन के विष को
आखिर उसी ने ही अमृत पिया है
हर दर्द जिनकी दवा बन गया हो
ज़ख्मों को अपने उसी ने सिया है
अपना इरादा जो मज़बूत रखते
बुलंदी को फिर तो उसी ने छुआ है
धर्मेन्द्र अरोड़ा