मिल जाए घर कोई….
शाम ढल रही है…
सर्द हवा के झोंकों में
हल्की-हल्की कुछ नमी पिघल रही है…
पक्षियों की देखकर कतारें
लगता है जैसे कोई
बेचैन सी नदी,
सागर से मिल रही है…
सूरज भी जाकर छिप गया
क्षितिज के आगोश में…
और यह शाम, रात का
एक फरमान लेकर आ रही है…
अपने -अपने घरों में जाकर
सबको यह रात गुजारनी है…
कोई घरौंदों में तो,
कोटर में कोई
कोई झोपडों में तो
आलीशान मकान में कोई…
सबका एक ठौर, एक ठिकाना
निश्चित सा करती है रात…
मगर मैं सुबह से अब तक
एक घर की तलाश में…
फिर रहा हूँ परेशान- सा
सुबह, दोपहर, शाम
एक-एक करके
सब तो गुजर गए
मेरे घर से जुड़े ख्वाबों को देखकर…
मगर मैं पा न सका ठिकाना कोई
मुझे इंतजार है…
किसी कोने, किसी गली, किसी मोहल्ले का
बड़ी-बड़ी इमारतों की भीड़ में शायद
हाँ शायद कहीं, कोई बना हो
जो मैं पास सकूँ…
ऐसा बसर कोई
अपना ठिकाना, अपना ठहर कोई
मकानों के इस जंगल में
मिल जाए घर कोई….
-✍️ देवश्री पारीक ‘अर्पिता’
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