मिल गया
इक किराये का खाली मकां मिल गया ।
किसको आखिर मुकम्मल जहां मिल गया ।
कोई तरसा है दो गज़ ज़मीं के लिए,
और किसी को खुला आसमां मिल गया ।
हम चले थे सफ़र पर अकेले मगर,
चलते-चलते हमें कारवां मिल गया ।
दिल में जज़्बात कितने रहे दफ़्न पर,
तुमको देखा लगा हमनवां मिल गया ।
रूह प्यासी रही उम्रभर प्यार को,
इश्क़ में हारा हर नौजवां मिल गया ।
शोर अंदर बहुत होंठ ख़ामोश पर,
जैसे वीरान इक आशियां मिल गया ।
खेल ‘अरविन्द’ तकदीर का है अजब,
मौत का मुठ्ठियों में निशां मिल गया ।
✍️ अरविन्द त्रिवेदी
महम्मदाबाद
उन्नाव उ० प्र०