मिला साजन नहीं मन का
नहाया रोज मल-मल कर, धुला आंगन नहीं मन का।
हृदय में शूल थे जिनके, खिला उपवन नहीं मन का।
जवानी से बुढ़ापे तक, किया हमने सफर लेकिन,
अजी क्या बात है अब भी, गया बचपन नहीं मन का।
नहीं कंगन गढ़ाया तो, हुई नाराज घरवाली,
तुनक कर रोज कहती है, मिला साजन नहीं मन का।
विरह का ताप भारी था, झुलस कर हो गया कांटा,
बड़ा बेदर्द प्रीतम है, सुना क्रंदन नहीं मन का।
जलधि जैसा हृदय मेरा, मुहब्बत है सभी के प्रति,
भले कुछ मुफलिसी में हूँ, मगर निर्धन नहीं मन का।
(स्वरचित मौलिक)
#सन्तोष_कुमार_विश्वकर्मा_सूर्य
तुर्कपट्टी, देवरिया, (उ.प्र.)
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